Wednesday, March 8, 2017

9 मार्च का इतिहास : आज ही के दिन 1846 में लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे

 


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1846 में लाहौर की संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे


लाहौर की संधि प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध समाप्त होने के बाद 9 मार्च 1846 को की गई  थी।  यह संधि ईस्ट इंडिया कंपनी और सात वर्षीय महाराजा दलीप सिंह बहादुर के बीच संपन्न हुई थी। संधि की शर्तें बहुत सख़्त थीं और सब की सब सिखों के खिलाफ थीं। सिखों के हाथ से जम्मू, कश्मीर, हजारा, सतलुज नदी के दक्षिण के क्षेत्र और जालंधर दोआब के किले और सतलज व ब्यास नदियों के बीच का क्षेत्र निकल गया।
इसके अलावा, लाहौर सेना के आकार पर भी पाबंदी लगा दी गई और छत्तीस मैदानी तोपें ज़ब्त कर ली गईं। सतलुज और ब्यास नदियों और सिंधु नदी के कुछ हिस्से का नियंत्रण अंग्रेजों के हाथ में चला गया।

इसके अलावा, यह प्रावधान भी रखा गया कि ईस्ट इंडिया कंपनी बाद में ब्यास और सिंधु नदी के बीच का कश्मीर सहित पूरा पहाड़ी इलाका, जम्मू के राजा गुलाब सिंह को बेच दे गी। महाराजा दलीप सिंह ने तमाम पहाड़ी इलाकों पर राजा गुलाब सिंह की संप्रभुता और स्वतंत्रता को मान्यता दे दी। लाहौर के महाराजा को कोहनूर हीरा इंग्लैंड की महारानी को देना पड़ा। महाराजा रंजीत सिंह ने यह हीरा शाह शुजा उल मुल्क से लिया था।

महाराजा रणजीत सिंह ने 1799 और 1839 के बीच पंजाब के सिख साम्राज्य का निर्माण किया था। उन्होंने लाहौर को इस साम्राज्य की राजधानी बनाया था। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद, आंतरिक मतभेद और हत्याओं के कारण साम्राज्य नष्ट हो गया। सिखों और अंग्रेज़ों के बीच संघर्ष शुरू हो गया और 13 अक्तूबर 1845 को प्रथम अंग्रेज़-सिख युद्ध शुरू हुआ।

अंग्रेज़ 20 फरवरी 1846 को लाहौर में बिना किसी बाधा के दाखिल हो गए। उन्होंने युद्ध के हरजाने के तौर पर डेढ़ करोड़ रुपए के भुगतान की मांग की। लाहौर सरकार पूरी राशि का तुरंत भुगतान करने में असमर्थ थी। महाराजा ने एक करोड़ रुपए के बदले, कश्मीर और हजारा सहित ब्यास और सिंधु नदियों के बीच स्थित सारा
पहाड़ी इलाका और अपने सभी किले हमेशा के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिए।

लाहौर राज्य की सेना का आकार भी सीमित कर दिया गया। राज्य को केवल बारह हज़ार घुड़सवार सेना और 25 बटालियन पैदल सेना रखने की अनुमिति थी। हर बटालियन में 800 सैनिक होते थे। महाराजा की मां महारानी जिंदान कौर, रीजेंट अर्थात के राज्य-संरक्षक रूप में काम कर रही थीं। अंग्रेज़ों ने उन्हें 150,000 रुपये की वार्षिक पेंशन दे कर उन को उन के पद से हटा दिया। उन के स्थान पर एक रीजैन्सी कौनसिल बनाई गई जिस में प्रमुख सरदारों को शामिल किया गया। यह कौनसिल अंग्रेज़ों के अधिकारी जिस को

रैज़िडैन्ट कहा जाता था के नियंत्रण और मार्गदर्शन के तहत काम करती थी और इस तरह लाहौर सरकार प्रभावी रूप से ब्रिटिश नियंत्रण में चली गई। महाराजा को ब्रिटिश सरकार की सहमति के बिना किसी भी अंग्रेज़ या यूरोपीय व अमेरिकी व्यक्ति को अपनी सेवा में रखने का अधिकार नहीं था। महाराजा दलीप सिंह को ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से चार से पांच लाख रुपए की वार्षिक पेंशन दी जाती थी।

तय हुआ कि वर्ष 1846 के अंत तक ब्रिटिश सेना लाहौर में तैनात रहेगी। लेकिन जब ब्रिटिश सेना के लाहौर छोड़ने का समय आया तो लाहौर सरकार ने अनुरोध किया कि जब तक महाराजा की आयु 16 वर्ष न हो जाए, ब्रिटिश सेना लाहौर में ही रहे।

अंग्रेज़ों ने यह अनुरोध स्वीकार कर लिया और निर्णय लिया गया कि गवर्नर जनरल लाहौर में एक ब्रिटिश रैजिडैन्ट अधिकारी नियुक्त करेंगे और लाहौर राज्य का हर विभाग सभी मामलों में उन के निर्देशानुसार और उन के नियंत्रण में ही काम करेगा। लाहौर की संधि भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके प्रभाव इस देश में आज भी महसूस किए जा रहे हैं।

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