Thursday, August 24, 2017

हमारे महापुरुष : अमर शहीद शिवराम हरी राजगुरु की जीवन गाथा

 

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माँ भारती की गुलामी की बेड़ियाँ काटने वाले शहीदों का बलिदान देश कभी भूल नहीं सकता।  आजादी के दीवानों का हाल ये था की माँ भारती के लिए स्वयं को न्योछावर कर देने की होड़ सी लग गयी थी स्वतन्त्रता संग्राम में। ऐसे ही एक दीवाने थे अमर शहीद श्री राजगुरु जिनका ऋण ये देश  नहीं चूका पायेगा।  

शिवराम हरि राजगुरु का जन्म २४ अगस्त, १९०८ को श्री हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र  के रूप में  पुणे के पास खेड़ा वर्तमान नाम राजगुरु नगर में हुआ था। हरिनारायण राजगुरु के  पूर्वज पंडित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी के प्रपौत्र साहू जी महाराज ने राजगुरु का पद दिया था। तब से इस परिवार को राजगुरु के नाम लगने लगा।

छह वर्ष की अबोध अवस्था में ही शिवराम हरी राजगुरु के पिताजी श्री हरिनारायण जी का देहावसान  हो गया। पढ़ाई में कम और खेलकूद में अधिक रुचि होने के कारण उनके भाई ने उन्हें डांटा इस पर क्रोधित होकर राजगुरु ने घर छोड़ दिया, तथा कई दिन इधर-उधर घूमते घामते काशी आकर संस्कृत में अध्ययन करने लगे। भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे। एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे।

यहां उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक, गोरखपुर के सह सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ। कुछ ही समय में वे क्रांतिकारी दल के विश्वस्त सदस्य बन गये। जब दल की ओर से दिल्ली में एक व्यक्ति को मारने का निश्चय हुआ, तो इस काम में राजगुरु को भी लगाया गया। राजगुरु इसके लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में किसी और व्यक्ति को ही मार दिया।

राजगुरु मस्त स्वभाव के युवक थे। उन्हें सोने का बहुत शौक था। एक बार उन्हें एक अभियान के लिए कानपुर के छात्रावास में १५ दिन रुकना पड़ा। वे १५ दिन उन्होंने रजाई में सोकर ही गुजारे। राजगुरु को यह मलाल था कि भगतसिंह बहुत सुंदर है, जबकि उनका अपना रंग सांवला है। इसलिए वह हर सुंदर वस्तु से प्यार करते थे। यहां तक कि सांडर्स को मारने के बाद जब सब कमरे पर आये, तो राजगुरु ने सांडर्स की सुंदरता की प्रशंसा की।

भगतसिंह से आगे निकलने की होड़ में राजगुरु ने सबसे पहले सांडर्स पर गोली चलाई थी। लाहौर से निकलतेे समय सूटधारी अफसर बने भगतसिंह  के साथ हाथ में बक्सा और सिर पर होलडाल लेकर नौकर के वेष में राजगुरु ही चले थे। इसके बाद वे महाराष्ट्र आ गये। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने एक कार्यकर्ता के फार्म हाउस पर उनके रहने की व्यवस्था की। जब दिल्ली की असेम्बली में बम फंेकने का निश्चय हुआ, तो राजगुरु ने चंद्रशेखर आजाद से आग्रह किया कि भगतसिंह के साथ उसे भेजा जाए; पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। इससे वे वापस पुणे आ गये।

राजगुरु स्वभाव से कुछ वाचाल थे। पुणे में उन्होंने कई लोगों से सांडर्स वध की चर्चा कर दी। उनके पास कुछ शस्त्र भी थे। क्रांति समर्थक एक सम्पादक की शवयात्रा में उन्होंने उत्साह में आकर कुछ नारे भी लगा दिये। इससे वे गुप्तचरों की निगाह में आ गये। पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्रयास किया; पर दूरी के कारण सफलता नहीं मिली।

इसके अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा सांडर्स वध का मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड घोषित किया गया। २३ मार्च, १९३१ को भगतसिंह और सुखदेव के साथ वे भी फांसी पर चढ़ गये। मरते हुए उन्हें यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे।

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