महर्षि वाल्मीकि का असली नाम रत्नाकर था। उनका पालन -पोषण एक भील परिवार में हुआ। वाल्मीकि ने भीलो की परम्परा को अपनाया और अपने परिवार के पालन पोषण के लिए वे राहगीरों को लूटने लगे,एवम कभी कभी उन्हे मार भी देते
एक दिन जंगल से कुछ ऋषि मुनि गुजर रहे थे। उन्हें देख कर रत्नाकर डाकू ने उन्हें बंदी बना लिया और कहा की जो भी कुछ तुम्हारे पास है वो सब निकाल दो। तभी एक ऋषि ने कहा की हम तुम्हें बहुत सारा धन देंगे पर तुम ये बताओ ऐसे पाप क्यूँ कर रहे हो ? रत्नाकर डाकू ने जवाब दिया की अपने एवम अपने परिवार के जीवनव्यापन के लिए। तब ऋषि मुनि ने पूछा जिस परिवार के लिए तुम ये पाप कर रहे हो। क्या वह परिवार तुम्हारे पापो के फल का भी भागीदार होगा ? इस पर रत्नाकर डाकू ने जोश के साथ कहा हाँ बिल्कुल होगा। मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा है। तभी ऋषि मुनि ने कहा की तुम हमें यहाँ इस पेड़ के बांध जाओ और अपने परिवार वालो को पूछ के आओ की मेरे इस पाप में आप भी भागीदार हो क्या?
रत्नाकर ने अपने सभी परिवार जनों एवम मित्र जनों से पूछा की तुम मेरे पाप में भागीदार हो क्या ? लेकिन किसी ने भी इस बात की हामी नहीं भरी । और कहा की पाप तुम कर रहे हो तो तुम्हारे पाप में हम भागीदार क्यों होंगे। परिवार का पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है। इस बात का रत्नाकर पर गहरा आधात पहुँचा। रत्नाकर ने उन ऋषियों के पास जाकर अपने पापों के प्रायश्चित करने के लिए पूछा तो उन ऋषियों ने कहा की राम का नाम जपने से तुम्हारे सारे पाप मिट जायेंगे। उस समय ही रत्नाकर ने दुराचारी के उस मार्ग को छोड़ वन में जाकर तप का मार्ग चुना एवम कई वर्षो तक ध्यान एवम तपस्या की, उनके शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया था। उस दीमक के घर को वाल्मीकि कहते हैं, साधना पूरी करके जब यह दीमकों के घर से निकले तो लोगो ने उन्हें वाल्मीकि नाम से पुकारने लगे |
तत्पश्चात महर्षि वाल्मीकि ने अपना सर्वस्व प्रभु की सेवा में लगा दिया, और जान मानस को महाकाव्य रामायण का उपहार दिया ।
#वैदिक_भारत
साभार : राष्ट्रवादी भाई श्री गणेश चौधरी
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