Thursday, September 14, 2017

वैदिक ज्ञान :क्या है सनातन धर्म के पवित्र सोलह संस्कार ?जानिए क्यों आवश्यक है सब के लिए ?

 

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महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार बताए है। प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होते थे ।  संस्कार एक सनातन परंपरा है जो व्यक्ति के जन्म होने से पहले ही प्रारम्भ होकर मृत्य होने के बाद तक चलती रहती है । सौलह संस्कारों के पीछे की सार्थकता को वैज्ञानिक भी मानते है, और आज देश विदेश में तमाम बुद्धिजीवी वैदिक परंपरा का समर्थन करने लगे है ।  

वैदिक संस्कार :

१. गर्भाधान संस्कार :
 यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान प्राप्त के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है।

२.पुंसवन संस्कार :
 पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात किया जाता है इस समय मस्तिष्क विकसित होने लगता है। गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है।

३.सीमन्तोन्नयन संस्कार:
 सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।

४. जातकर्म संस्कार :
बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।

५. नामकरण :

जातकर्म के बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है।

६. निष्क्रमण संस्कार :
निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। इसके बाद जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।

७.अन्नप्राशन संस्कार:
इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।  आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है

८.मुंडन संस्कार:
मुंडन को चूड़ाकर्म संस्कार भी कहा जाता है। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवे या सातवे वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं जिसे मुंडन संस्कार कहा जाता है। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है।

९.विद्या आरंभ संस्कार:
इस संस्कार के माध्यम से शिशु को उचित शिक्षा दी जाती है। शिशु को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराया जाता है। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये

१०.कर्णवेध संस्कार:
  इस संस्कार में कान छेदे जाते है । प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है।

११.उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार:
उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।

१२.वेदारंभ संस्कार:
प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित कराने की लिए ये संस्कार किया जाता था

१३.केशांत संस्कार:
केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें।

१४.समावर्तन संस्कार:
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इस संस्कार के बाद वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था।

१५.विवाह संस्कार:
प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यह धर्म का साधन है। इस संस्कार के अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।

१६.अंत्येष्टी संस्कार:
अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है।  शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।

वैदिक भारत आप समस्त पाठकों से अपील करता है की, "आप भी इन वैदिक संस्कारों का पालन करें, इन्ही संस्कारों के और वैदिक सम्पदा के दम पर भारत हज़ारों वर्षों तक विश्व गुरु रहा है । आज तमाम विकसित देश हमारी वैदिक संस्कृति पर शौध कर रहे है और उसका अनुसरण कर रहे है, अतः आप भी करें ।"

इस परंपरा का प्रचार प्रसार करें, फेसबुक,ट्विटर और वाट्सएप्प व तमाम सोशल मीडिया पर शेयर करें, और भारत को पुनः विश्व गुरु बनाने में में अपने राष्ट्रधर्म का पालन करें |

साभार : राष्ट्रवादी भाई श्री गणेश चौधरी

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