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राष्ट्रवादी भाइयों ! भारत की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वालों की कमी नहीं थी , किन्तु वामपंथी इतिहासकारों और अंग्रेजपरस्त कोंग्रेसी सरकारों के दबाव के चलते ऐसे महान क्रांतिकारियों को इतिहास के पन्नों से बाहर ही निकलने नहीं दिया गया, और अँधेरी कोठरियों में दबा दिया गया।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में देश के प्रत्येक राष्ट्रवादी के ह्रदय में भारत माता की बेडि़याँ काटने की उत्कट अभिलाषा बलवती हो रही थी। कुछ लोग शान्ति के मार्ग से इन्हें तोड़ना चाहते थे, तो कुछ "यथा राजा तथा प्रजा" वाले मार्ग को अपना कर बम-गोली और धमाकों से फिरंगियों को सदैव के लिए यथास्थान पहुंचाना चाहते थे। ऐसे समय में बंगभूमि का योगदान बहुत ही सराहनीय रहा। वीरप्रसूता बंगभूमि ने अनेक क्रांतिकारियों को जन्म दिया, जिनके जीवन का एक ही ध्येय था-"माँ भारती के बंधनों को काटना। "
25 मई, 1885 को बंगाल के चन्द्रनगर में रासबिहारी बोस का जन्म हुआ। वे बचपन से ही क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये थे। हाईस्कूल उत्तीर्ण करते ही वन विभाग में उनकी नौकरी लग गयी। यहाँ रहकर उन्हें अपने विचारों को क्रियान्वित करने का अच्छा अवसर मिला, चूँकि सघन वनों में बम, गोली का परीक्षण करने पर किसी को शक नहीं होता था।
रासबिहारी बोस का सम्पर्क दिल्ली, लाहौर और पटना से लेकर विदेश में स्वाधीनता की अलख जगा रहे क्रान्तिवीरों तक से था। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभा यात्रा निकलने वाली थी। रासबिहारी बोस ने योजना बनाई कि वायसराय की सवारी पर बम फेंककर उसे सदा के लिए समाप्त कर दिया जाये। इससे अंग्रेजी शासन में जहाँ भय पैदा होगा, वहाँ भारतीयों के मन में उत्साह का संचार होगा।
योजनानुसार रासबिहारी बोस तथा बलराज ने चाँदनी चौक से यात्रा गुजरते समय एक मकान की दूसरी मंजिल से बम फेंका; पर दुर्भाग्यवश वायसराय को कुछ चोट ही आयी, वह मरा नहीं। रासबिहारी बोस फरार हो गये। पूरे देश में उनकी तलाश जारी हो गयी। ऐसे में उन्होंने अपने साथियों की सलाह पर विदेश जाकर देशभक्तों को संगठित करने की योजना बनाई। उसी समय विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जापान जा रहे थे। वे भी उनके साथ उनके सचिव पी.एन.टैगोर के नाम से जापान चले गये।
पर जापान में वे विदेशी नागरिक थे। जापान और अंग्रेजों के समझौते के अनुसार पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर भारत भेज सकती थी। अतः कुछ मित्रों के आग्रह पर उन्होंने अपने शरणदाता सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से उसके आग्रह पर विवाह कर लिया। इससे उन्हें जापान की नागरिकता मिल गयी। यहाँ तोसिको का त्याग भी अतुलनीय है। उसने रासबिहारी के मानव कवच की भूमिका निभाई। जापान निवास के सात साल पूरे होने पर उन्हें स्वतन्त्र नागरिकता मिल गयी। अब वे कहीं भी जा सकते थे।
उन्होंने इसका लाभ उठाकर दक्षिण एशिया के कई देशों में प्रवास कर वहाँ रह रहे भारतीयों को संगठित कर अस्त्र-शस्त्र भारत के क्रान्तिकारियों के पास भेजे। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध की आग भड़क रही थी। रासबिहारी बोस ने भारत की स्वतन्त्रता हेतु इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए जापान के साथ आजाद हिन्द की सरकार के सहयोग की घोषणा कर दी। उन्होंने जर्मनी से सुभाषचन्द्र बोस को बुलाकर ‘सिंगापुर मार्च’ किया तथा 1941 में उन्हें आजाद हिन्द की सरकार का प्रमुख तथा फौज का प्रधान सेनापति घोषित किया।
देश की स्वतन्त्रता के लिए विदेशों में अलख जगाते और संघर्ष करते हुए रासबिहारी बोस का शरीर थक गया। उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया था। 21 जनवरी, 1945 को मात्र 60 वर्ष की आयु में वे भारत माता को स्वतन्त्र देखने की अपूर्ण अभिलाषा लिये हुए ही चिरनिद्रा में सो गये।
ऐसे प्रखर राष्ट्रवादी हुतात्मा को वैदिक भारत का शत शत नमन |
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