Wednesday, August 16, 2017

हमारे महापुरुष :हिंदुत्व के प्रखर पथप्रदर्शक स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस

 

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श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म फागुन शुक्ल २, विक्रमी सम्वत् १८९३ (१८ फरवरी, १८३६) को कोलकाता के समीप ग्राम कामारपुकुर में हुआ था। पिता श्री खुदीराम चट्टोपाध्याय एवं माता श्रीमती चन्द्रादेवी ने अपने पुत्र का नाम गदाधर रखा था। सब उन्हें स्नेहवश 'गदाई' भी कहते थे। 

बचपन से ही उन्हें साधु-सन्तों का साथ तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन अच्छा लगता था। वे पाठशाला जाते थे; पर मन वहाँ नहीं लगता था। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्हें रामायण, महाभारत आदि पौराणिक कथाएँ याद हो गयीं थीं। बड़े होने के साथ ही प्रकृति के प्रति इनका अनुराग बहुत बढ़ने लगा। प्रायः ये प्राकृतिक दृश्यों को देखकर भावसमाधि में डूब जाते थे। एक बार वे मुरमुरे खाते हुए जा रहे थे कि आकाश में काले बादलों के बीच उड़ते श्वेत बगुलों को देखकर इनकी समाधि लग गयी। ये वहीं निश्चेष्ट होकर गिर पड़े। काफी प्रयास के बाद इनकी समाधि टूटी।

पिता के देहान्त के बाद बड़े भाई रामकुमार इन्हें कोलकाता ले आये और हुगली नदी के तट पर स्थित रानी रासमणि द्वारा निर्मित माँ काली के मन्दिर में पुजारी नियुक्ति करा दिया। मन्दिर में आकर उनकी दशा और विचित्र हो गयी। प्रायः वे घण्टों काली माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर रोते रहते थे। एक बार तो वे माँ के दर्शन के लिए इतने उत्तेजित हो गये कि कटार के प्रहार से अपना जीवन ही समाप्त करने लगे; पर तभी माँ काली ने उन्हें दर्शन दिये। मन्दिर में वे कोई भेदभाव नहीं चलने देते थे; पर वहाँ भी सांसारिक बातों में डूबे रहने वालों से वे नाराज हो जाते थे।

एक बार तो मन्दिर की निर्मात्री रानी रासमणि को ही उन्होंने चाँटा मार दिया। क्योंकि वह माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर भी अपनी रियासत के बारे में ही सोच रही थी। यह देखकर कुछ लोगों ने रानी को इनके विरुद्ध भड़काया; पर रानी इनकी मनस्थिति समझती थी, अतः वह शान्त रहीं।

इनके भाई ने सोचा कि विवाह से इनकी दशा सुधर जाएगी; पर कोई इन्हें अपनी कन्या देने को तैयार नहीं होता था। अन्ततः इन्होंने अपने भाई को रामचन्द्र मुखोपाध्याय की पुत्री सारदा के बारे में बताया। उससे ही इनका विवाह हुआ; पर इन्होंने अपनी पत्नी को सदैव माँ के रूप में ही प्रतिष्ठित रखा।

मन्दिर में आने वाले भक्त माँ सारदा के प्रति भी अतीव श्रद्धा रखते थे। धन से ये बहुत दूर रहते थे। एक बार किसी ने परीक्षा लेने के लिए दरी के नीचे कुछ पैसे रख दिये; पर लेटते ही ये चिल्ला पड़े। मन्दिर के पास गाय चरा रहे ग्वाले ने एक बार गाय को छड़ी मार दी। उसके चिन्ह रामकृष्ण की पीठ पर भी उभर आये। यह एकात्मभाव देखकर लोग इन्हें परमहंस कहने लगे।

मन्दिर में आने वाले युवकों में से नरेन्द्र को वे बहुत प्रेम करते थे। यही आगे चलकर विवेकानन्द के रूप में प्रसिद्ध हुए। सितम्बर १८९३ में शिकागो धर्मसम्मेलन में जाकर उन्होंने हिन्दू धर्म की जयकार विश्व भर में गुँजायी। उन्होंने ही ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। इसके माध्यम से देश भर में सैकड़ों विद्यालय, चिकित्सालय तथा समाज सेवा के प्रकल्प चलाये जाते हैं।

एक समय ऐसा था, जब पूरे बंगाल में ईसाइयत के प्रभाव से लोगों की आस्था हिन्दुत्व से डिगने लगी थी; पर रामकृष्ण परमहंस तथा उनके शिष्यों के प्रयास से फिर से लोग हिन्दू धर्म की ओर आकृष्ट हुए। १६ अगस्त, १८८६ को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ले ली।

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