Saturday, August 19, 2017

हमारे व्रत व त्यौंहार :गौ-वत्स द्वादशी की पूजन विधि व कथा (आधुनिकता के आडम्बर में विलुप्त होता त्योंहार)

 

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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को सम्पूर्ण भारत में गौ-वत्स द्वादशी अथवा बछ बारस के रुप में मनाया जाता है।  सौभाग्यवती स्त्रियां गौ-वत्स द्वादशी का उपवास पुत्र प्राप्ति और संतान की दीर्घायु के निमित्त करती है। जैसा की विदित है आधुनिकता के नाम पर लोग हमारी संस्कृति से विमुख होते जा रहे अतः वर्तमान में यह पर्व राजस्थान के कुछ क्षेत्रों तक ही सिमित रह गया है। आधुनिकता के ढोंग  ने इस पौराणिक और जीव दया के पर्व को भी विस्मृत कर दिया है। वत्सद्वादशी अथवा बछ बारस पर  परिवार की महिलाएं गौमाता व बछडे का पूजन करती है. इसके पश्चात अपने बच्चों को प्रसाद के रुप में सूखा नारियल देती है।  यह जीव दया का पर्व विशेष रुप से माता का अपने बच्चों कि सुख-शान्ति की कामना से जुडा हुआ है।

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गौ-वत्स द्वादशी पूजन विधि
बछड़े वाली गाय की पूजा कर कथा सुनी जाती है फिर बच्चों को नेग तथा श्रीफल का प्रसाद रुप में देती हैं. इस दिन घरों में चाक़ू का प्रयोग निषेध माना जाता है।  अन्न मेभी गेहूं से परहेज करते हुए विशेष रुप से भीगे हुए चने, मूंग, आदि से स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं तथा गौमाता को इन्हीं का भोग लगाया जाता है।  गाय के दूध का भी इस दिन प्रयोग नहीं किया जाता। 

प्रातः नित्यकर्म से निवृत होकर स्नान के पश्चात गाय तथा बछडे़ का पूजन किया जाता है। जैसा कि आज कल  कई लोगों के घरों में गाय नहीं होती है. वह किसी दूसरे के घर जाकर देशी गाय का पूजन कर सकते हैं. यदि घर के आसपास भी देशी गाय और बछडा़ नहीं मिले तब गीली मिट्टी से गाय तथा बछडा बनाए और उनकी पूजा करें।गाय के दूध से बनी सामग्री भी इस दिन प्रयोग नहीं किया जाता
तांबे के पात्र में शुद्ध जल लेकर धुप डीप नैवेद्य ( चना व उड़द से बने भोज्य पदार्थ गौमाता को खिलाने चाहिए). पूजन करते समय इन मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए। 

                                                    क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।
                                                  सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमो नम:॥

उपर्युक्त सूत्र का तात्पर्य है कि- "समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से उत्पन्न सुर तथा असुरों द्वारा नमस्कार की गई देवस्वरुपिणी माता, आपको बार-बार नमस्कार है। मेरे द्वारा दिए गए इस अर्ध्य को आप स्वीकार करें।"

                                               सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता।
                                                    सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तमिमं ग्रस॥
                                                       तत: सर्वमये देवि सर्वदेवैरलड्कृते।
                                                 मातर्ममाभिलाषितं सफलं कुरु नन्दिनी॥


उपर्युक्त मंत्र का अर्थ है कि- "हे जगदम्बे! हे स्वर्गवासिनी देवी! हे सर्वदेवमयी! आप मेरे द्वारा दिए इस अन्न को ग्रहण करें। सभी देवतओं द्वारा अलंकृत माता नन्दिनी आप मेरा मनोरथ पूर्ण करें।

गाय का पूजन करने के बाद 'गोवत्स की कथा' सुननी चाहिए। सम्पूर्ण दिन व्रत रखकर रात्रि में अपने इष्टदेव तथा गौमाता की आरती करनी चाहिए। तत्पश्चात् भोजन ग्रहण किया जाता है।

गौ-वत्स द्वादशी की कथा
प्राचीन समय में भारत में सुवर्णपुर नामक एक नगर था। उस नगर में देवदानी राजा राज्य करता था। उसके पास एक गाय और एक भैंस थी। उस राजा की दो रानियाँ थीं, जिनमें से एक का नाम 'सीता' और दूसरी का नाम 'गीता' था। सीता पाली हुई भैंस से बड़ा ही नम्र व्यवहार करती थी और उसे अपनी सहेली के समान प्यार करती थी। जबकि गीता गाय से सहेली के समान और बछडे़ से पुत्र समान प्यार करती थी। एक दिन भैंस ने सीता से कहा- "गाय, बछडा़ होने पर गीता रानी मुझसे ईर्ष्या करती है।" इस पर सीता ने कहा- "यदि ऐसी बात है, तब मैं सब ठीक कर लूंगी।" सीता उसी दिन गाय के बछडे़ को काटकर गेहूँ की राशि में दबा देती है। इस घटना के बारे में किसी को भी कुछ पता नहीं चलता। जब राजा भोजन करने बैठा तभी मांस और रक्त की वर्षा होने लगी। महल में चारों ओर रक्त तथा मांस दिखाई देने लगा। राजा की भोजन की थाली में भी मल-मूत्र आदि की बास आने लगी। यह सब देखकर राजा को बहुत चिन्ता हुई। इसी समय आकाशवाणी हुई- "हे राजा! तेरी रानी ने गाय के बछडे़ को काटकर गेहूँ की राशि में दबा दिया है। इसी कारण यह सब हो रहा है। कल 'गोवत्स द्वादशी' है। इसलिए आप कल भैंस को नगर से बाहर निकाल दीजिए और गाय तथा बछडे़ की पूजा करें। आप गाय का दूध तथा कटे फलों का भोजन में त्याग करें। इससे पाप नष्ट हो जाएगा और बछडा़ भी जिन्दा हो जाएगा।

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