Friday, August 18, 2017

हमारे महापुरुष:शिवाजी द्वारा स्थापित हिन्दू सम्राज्य के प्रहरी, अपराजेय नायक, पेशवा बाजीराव की जीवन गाथा

 

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छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने बुद्धिबल और भुजबल से भारत के एक विशाल भूभाग को मुगलों के शासन से मुक्त करा लिया था। उनके बाद इस "हिन्दू साम्राज्य" को सँभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा।

बाजीराव का जन्म १८ अगस्त, १७०० को उनके ननिहाल ग्राम डुबेर में हुआ था। उनके दादा श्री विश्वनाथ भट्ट ने छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के साथ कईं युद्धों में भाग लिया था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू जी महाराज के पेशवा थे। उनकी वीरता के बल पर ही शाहू जी महाराज ने मुगलों तथा अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था।

बाजीराव पेशवा को बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति में विशेष रुचि थी। जब वे छह वर्ष के थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ,अतः उन्हें अनेक उपहार मिले। जब उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार को चुना। छत्रपति शाहू जी ने उनके शौर्य से प्रसन्न होकर उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले एक तेज दौड़ने वाले घोड़े की माँग कर डाली।   घुड़साल में ले जाये जाने पर उन्होंने घुड़साल के सबसे तेज दौड़ने वाले और अड़ियल घोड़े को चुना। यही नहीं, उस पर तुरन्त ही सवारी कर उन्होंने समस्त उपस्थित जनों को अचंभित कर दिया। 

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चौदह वर्ष की अल्पायु में ही बाजीराव प्रत्यक्ष युद्धों में भाग लेने लगे। ५,००० फुट की खतरनाक ऊँचाई पर स्थित पाण्डवगढ़ किले पर पीछे से चढ़कर उन्होंने हमला कर दिया और विजयी हुए । कुछ समय उपरान्त पुर्तगालियों के विरुद्ध एक नौसैनिक अभियान में भी उन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया । यह सब शौर्य और युद्ध कौसल देखकर ही  शाहू जी ने इन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी। ०२ अप्रैल, १७२० को बाजीराव के पिता विश्वनाथ पेशवा के देहान्त के बाद शाहू जी ने १७ अप्रैल, १७२० को २० वर्षीय तरुण बाजीराव को पेशवा बना दिया। बाजीराव ने पेशवा बनते ही सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम पर हमला कर छठी का दूध याद दिला दिया ।

२० वर्ष की छोटी आयु में उनके पिता की मृत्यु के पश्चात छत्रपति शाहू जी महाराज  ने दुसरे अनुभवी दावेदारों को किनारे कर बाजीराव को पेशवा के पद पर नियुक्त किया। इस नियुक्ति से ये स्पष्ट हो गया था की शाहू जी को बाजीराव के बाल्यकाल में ही उनकी बुद्धिमत्ता और वीरता का आभास हो गया था, इसलिए उन्होंने पेशवा जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए समस्त अनुभवी वीरों को छोड़कर बाजीराव जैसे किशोर की नियुक्ति की। बाजीराव सभी सिपाहीयो के मध्य अत्यंत लोकप्रिय थे और आज भी पूरे भारत में उनका नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।

बाजीराव पेशवा ने  अपने ४० वर्ष के जीवन काल में ४४  या उस से भी अधिक लड़ाईयां लड़ी थी, और अपराजेय रहने के कारण विश्व विख्यात थे। जनरल मोंटगोमेरी, ब्रिटिश जनरल और बाद में फील्ड मार्शल ने भी  द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात लिखित रूप में यह स्वीकार किया था की बाजीराव जैसा वीर सदियों में एक होता है । अपने पिता के ही मार्ग पर चलकर, मुगलों को सोच समझकर उनकी कमजोरियों को खोजकर उन्हें राज्य से खदेड़ने वाले बाजीराव ही पहले व्यक्ति थे।

इसके बाद मालवा के दाऊदखान, उज्जैन के मुगल सरदार दयाबहादुर, गुजरात के मुश्ताक अली, चित्रदुर्ग के मुस्लिम अधिपति तथा श्रीरंगपट्टनम के सादुल्ला खाँ को पराजित कर बाजीराव ने सब ओर भगवा झण्डा फहरा दिया। इससे उनके साम्राज्य की सीमा हैदराबाद से राजपूताने तक हो गयी। बाजीराव ने राणो जी शिन्दे, मल्हारराव होल्कर, उदा जी पँवार, चन्द्रो जी आंग्रे जैसे राष्ट्रवादी नवयुवकों को आगे बढ़ाकर कुशल सेनानायक बनाया।

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पालखिण्ड के भीषण युद्ध में बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह के वजीर निजामुल्मुल्क को धूल चटाई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रसिद्ध जर्मन सेनापति रोमेल को पराजित करने वाले अंग्रेज जनरल माण्टगोमरी ने इसकी गणना विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में की है। इसमें निजाम को सन्धि करने पर मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध से बाजीराव की धाक पूरे भारत में फैल गयी। उन्होंने वयोवृद्ध छत्रसाल की मोहम्मद खाँ बंगश के विरुद्ध युद्ध में सहायता कर उन्हें बंगश की कैद से मुक्त कराया। तुर्क आक्रमणकारी नादिरशाह को दिल्ली लूटने के बाद जब बाजीराव के आने का समाचार मिला, तो वह वापस लौट गया।

सदा अपराजेय रहे बाजीराव अपनी घरेलू समस्याओं और महल की आन्तरिक राजनीति से बहुत परेशान रहते थे। जब वे नादिरशाह से दो-दो हाथ करने की अभिलाषा से दिल्ली जा रहे थे, तो मार्ग में नर्मदा के तट पर रावेरखेड़ी नामक स्थान पर गर्मी और उमस भरे मौसम में लू लगने से मात्र ४० वर्ष की अल्पायु में २८ अप्रैल, १७४० को उनका देहावसान हो गया। उनकी युद्धनीति का एक ही सूत्र था कि जड़ पर प्रहार करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी। पूना के शनिवार बाड़े में स्थित महल आज भी उनके शौर्य की याद दिलाता है।

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