Tuesday, May 9, 2017

हमारे महापुरुष : हिन्दुवाणा सूरज महाराणा प्रताप सिंह जी की जन्म जयंती (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया ) पर शत शत नमन

 

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तत्कालीन राजपूताना की धरती जिसे हम आज राजस्थान कहते है, जब हम शांत रात्रि में उस मरुस्थल के धोरों पर पूर्व से चलने वाली हवाओं की आवाज़ सुनते है तो ऐसा लगता है की जैसे हल्दी घाटी, कुम्भलगढ़, चित्तौडगढ़ की धरती आज भी यह पुकारती है 
                                               माई रे एह्ड़ा पूत जण, जेह्ड़ा राणा प्रताप !
                                               अकबर जाग्यो नींद सूं, जाण सराणे सांप !!
 

महाराणा का राजतिलक :
राणा उदय क़ा स्वर्गवास हो चुका था, सभी सामंत शुभचिन्तक दाह संस्कार करने के पश्चात   लौटकर एक वट बृक्ष की गहरी और शीतल छायां में बैठे ही थे, कि एक सामंत ने उठ कर कहा- "हमारे राणा तो प्रताप सिंह जी होने चाहिए |"
सभी बिचार मग्न हो गए क्यों कि सभी को पता था की राणा तो प्रताप क़े बड़े भाई हो चुके थे, लेकिन सभी यह भी जानते थे कि बप्पा रावल क़े बंश को छोड़कर सभी राजपूत अकबर को राजा स्वीकार कर चुके है, सबने देश, धर्म और राज्य का कैसे हित हो सकता है? इस ज्वलंत प्रश्न पर विचार करके  प्रताप को राणा बनाने क़ा निर्णय किया |
      
राणा ने कहा की यदि हम पर जिम्मेदारी आती है तो हम किसी क़े आगे कभी सिर नहीं झुकाएगे, यह सब सोच लें, और हमारे साथ जीने, मरने की सौगंध खाए, एक साथ "एकलिंग भगवान की जय" क़ा उद्घोष नीले आकाश में तीव्र हो उठता है | राजधानी लौटते ही प्रताप क़ा राजतिलक होता है, "महाराणा प्रताप की जय" क़ा उद्घोष होता है, महाराणा प्रतिज्ञा लेते है-"मै प्रताप सिंह पुत्र स्वर्गीय श्री राणा उदय सिंह, भगवान एकलिंगनाथ  की शपथ खाकर प्रण करता हूँ कि, प्रताप क़े मुख से अकबर तुर्क ही कहलायेगा, जब तक शरीर में प्राण रहेंगे किसी की अधीनता स्वीकार करके उसे बादशाह नहीं कहुगा, सूर्य जहाँ पूर्ब में उगता है वही उगेगा, जिस प्रकार सूर्य का पश्चिम में उदय होना  असंभव उसी प्रकार प्रताप क़े मुख से अकबर को बादशाह कहलवाना असंभव है|"
   
जीवन गाथा :
 मेवाड़ की शौर्य भूमि पर बप्पारावल क़े कुल की अक्षुण कीर्ति पताका हिंदुत्व की आन और शौर्य क़ा वह पुण्य प्रतीक, 'महाराणा सांगा' क़ा पावन पुत्र क़ा ९ मई १५४० वि.स.१५९६ को मेवाड मुकुटमणि हिन्दुवाणा सूरज महाराणा प्रताप क़ा जन्म मेवाड़ रियासत के कुम्भलगढ़ में हुआ और यह महापुरुष वि.स.१६२८ फाल्गुन शुक्ल को सिंहासन रुढ़ हुआ जब तक अधिकांश रजवाड़े अकबर क़े दरबारी हो चुके थे |

अकबर क़े सेनापति मानसिंह शोलापुर विजय करके लौट रहे थे, उदयसागर पर महाराणा ने उनके स्वागत की ब्यवस्था की|  "अतिथि देवो भव:" की रीति के नाते राजकीय सत्कार करना ही था | चूँकि मानसिंह तो राजा नहीं थे, अतः परंपरा क़े अनुसार राजा क़े साथ ही राणा भोजन पर बैठ सकते थे, क्यों की उस समय मानसिंह क़े पिता ही राजा थे | सो युवराज अमर ने स्वागत किया और उनके साथ भोजन भी किया | मानसिंह को यह बात अच्छी नहीं लगी और अपने को असहज महसूस करते हुए दिल्ली पहुचे |

अकबर द्वारा सेना सज्जित करके चित्तौडगढ़  पर आक्रमण कर दिया, राणाप्रताप की ब्यूह रचना बहुत ही मजबूत थी लेकिन शत्रु सेना अपार थी, बड़ी ही योजना से उन्होंने हल्दी घाटी को चुना था | लेकिन हिन्दुओ क़ा दुर्भाग्य क़ा वह दिन भी आया, हल्दीघाटी में भीलो क़ा अपने देश और नरेश क़े लिए वह अमर बलिदान, राजपूत बीरो क़ा वह तेजस्विता और राणा क़ा लोकोत्तर पराक्रम क़ा इतिहास, मेवाड़ के वीर रक्त ने श्रावन १६३३ में हल्दीघाटी क़ा कण-कण लाल कर दिया |

अपार शत्रुसेना के सामने थोड़े से राजपूत, भील सैनिक कितना टिकते, राणाप्रताप को पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा तथा  चेतक ने अपने स्वामी को सुरक्षित कर अंतिम बिदाई ली|
राणा ने सिर नहीं झुकाया, राजपूती आन क़ा सम्राट हिन्दू कुल गौरव इस संकट में भी अडिग रहकर जंगल -जंगल सैनिक शक्ति संगठित कर गुरिल्ला युद्ध को जन्म दिया | भामाशाह  ने आकर अकल्पित सहायता की तथा चित्तौड को छोड़कर शेष सभी किलो को पुनः जीत लिया | उदयपुर राजधानी बनी राणाप्रताप की प्रतिज्ञा अक्षुण रही जब वे १९ जनवरी सन १५९७ (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया) में परमधाम को जाने लगे तो उनके पुत्र, सामंतो ने उनकी प्रतिज्ञा दुहरा करके आश्वस्त किया |
मेवाड़ की इस पवित्र वीर प्रसुता भूमि में राणा जी द्वारा दिया गया, स्वधर्म क़ा वह सन्देश आज भी समग्र हिन्दू समाज को सुनाई  देता है।
                        आज हिन्दू सूर्य क़े जन्म की ४७७ वीं बर्षगाठ पर हार्दिक नमन | यह भी पढ़ें : वैदिक ज्ञान: सनातन पंचांग और हिंदी वर्ष का परिचय                                              
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