भारत में प्राचीन काल या वैदिक काल से ही सनातन धर्म को मानने वाले लोग सिर पर शिखा या चोटी रखते आ रहे है। सिर पर शिखा रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि इस कार्य को प्राचीन भारत के आर्यों की पहचान माना गया है।
शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है। शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है। शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है।
यदि आप ये सोचते है की शिखा केवल परम्परा और पहचान का प्रतीक है तो आप गलत सोच रहे है। सिर पर शिखा रखने के पीछे धार्मिक कारणों के साथ साथ बहुत बड़ा वैज्ञानिक कारण भी है, जिसे आधुनिक काल में वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध भी किया जा चूका है। इस लेख में वैदिक भारत आपको सिर पर शिखा की वैज्ञानिक आधार पर विवेचना करेगा जिससे आप जान सके कि हज़ारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज ज्ञान विज्ञानं और धर्म में हम से कितना आगे थे।
शिखा रखने का वैज्ञानिक कारण
शिखा वाला भाग, जिसके नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है, कपाल तन्त्र के अन्य खुली जगहों (मुण्डन के समय यह स्थिति उत्पन्न होती है) की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है।जिसके खुली होने के कारण वातावरण से उष्मा व अन्य ब्रह्माण्डिय विद्युत-चुम्बकी य तरंगों का मस्तिष्क से आदान प्रदान बड़ी ही सरलता से हो जाता है। और इस प्रकार शिखा न होने की स्थिति में स्थानीय वातावरण के साथ साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है।
लेकिन आधुनिक विज्ञानं के अनुसार मस्तिष्क को सुचारु, सर्वाधिक क्रियाशील और सर्वोचित उपयोग के लिए इसके ताप को नियंन्त्रित रहना अनिवार्य होता है। जो शिखा न होने की स्थिति मेँ कदापि संभव नहीं है।
शिखा (लगभग २ इंच के व्यास के में) इसताप को आसानी से सन्तुलित कर जाती है, और उष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से उष्मा के स्वतः आदान प्रदान को रोक देती है। आज से कई हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज इन सब वैज्ञानिक कारणोँ से भली भाँति परिचित थे।
जिस जगह शिखा रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। शिखा एक धार्मिक प्रतीक तो है ही साथ ही मस्तिष्क के संतुलन का भी बहुत बड़ा कारक है। आधुनिक युवा इसे रुढ़ीवाद मानते हैं लेकिन असल में यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। दरअसल, शिखा के कई रूप हैं।
आधुनिक दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचों बीच सहस्राह चक्र होता है।
शरीर में पांच चक्र होते हैं, मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्सेमें होता है और आखिरी है सहस्राह चक्रजो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रणकरने में सहायता मिलती है। शिखा का हल्का दबावहोने से रक्त प्रवाह भी तेजरहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।
ऐसा भी है कि मृत्यु के समय आत्मा शरीर के द्वारों से बाहर निकलती है (मानव शरीर में नौ द्वार बताये गए है दो आँखे, दो कान, दो नासिका छिद्र, दो नीचे के द्वार, एक मुह ) और दसवा द्वार यही शिखा या सहस्राह चक्र जो सिर में होता है , कहते है यदि प्राण इस चक्र से निकलते है तो साधक की मुक्ति निश्चत है।
और सिर पर शिखा होने के कारण प्राण बड़ी आसानी से निकल जाते है। और मृत्यु हो जाने के बाद भी शरीर में कुछ अवयव ऐसे होते है जो आसानी से नहीं निकलते, इसलिए जब व्यक्ति को मरने पर जलाया जाता है तो सिर अपने आप फटता है और वह अवयव बाहर निकलता है यदि सिर पर शिखा होती है तो उस अवयव को निकलने की जगह मिल जाती है।
शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है। शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है। शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है।
योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, शिखा के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए। शिखा रखने से मनुष्य लौकिक तथा पारलौकिक समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है।
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