नयसीद्वति द्विषः क्रिनोष्युक्थ्शन्सिनः!
नृभिः सुवीर उच्यते || [ऋग्वेद ६|४५|६]
(इत्
उ) सचमुच ही (द्विषः) शत्रुओ को (अति नयसी) तू दूर ले जाता है, शत्रुओं को
अतिक्रमण करके दूर ले जाता है (उक्थ्शन्सिनः) [और उनको ] वेद प्रशंसक
(कृणोषि) तू कर देता है | (नृभिः) [अतः] मनुष्यों से (सुवीरः)
उत्तम वीर (उच्यसे) कहा जाता है| शत्रु दूर भगाना कुछ
इतना कठिन नहीं है जितना उसे
वेद्भक्त बनाना।
शत्रुओं को पराजित करने वाला निस्संदेह
वीर है किन्तु वह महावीर है = सुवीर है जो उनको वेद्भक्त बनाता है। वेद ने यह संकेत
कर दिया है कि शत्रुता दूर करने का सर्वोत्तम प्रकार है शत्रु को वेदभक्त
बनाना और वेद प्रचार साधारण जनों का कार्य नहीं, इस कार्य को कोई विरला
वीर जो इस संसार की निंदास्तुति की परवाह न करता हो वही कर सकता है।
सृष्टि केआदि में परमात्मा ने मानव मात्र को अपना ज्ञान दिया जिसपर आचरण करते हुए मानव मानव बनने
का प्रयास करें परमात्मा के दिये गये ज्ञान का ही नाम वेद है जो
मानव मात्र के लिए है ।
विश्वजन्या सुमति =सब जनों के हित करने
वाली।
अप्रयुता= अर्थात मिलावट रहित | जिसमें मिलावट होना
भी सम्भव नहीं ईश्वरीय ज्ञान है, ईश्वरीय ज्ञान में मानव का मिलाना सम्भव नहीं। जिस ज्ञान से मानव मात्र को जुड़े रहना चाहिए था, पर मानव कहलाने वाले
ही उसी परमात्मा के ज्ञान से अपनी दूरी बना ली। परमात्मा के दिये ज्ञान को छोड़ मानव कृत ग्रंथों को ही ब्रह्म
वाक्य कहना प्रारम्भ कर दिया और प्रकाश से अन्धकार की और चलते चले गए, जिसका परिणाम आज सम्पूर्ण विश्व में सबको देखने
को मिल रहा है।
सभी अमानवीय कार्य को
मानव हो कर करने लगे, जिस काम को करना नहीं चाहिए था मानव कहला कर भी
वही काम करने लगे जो मानवता विरोधी है,
यही परिणाम सामने आया कि जिस मानव मात्र को प्रेम बाँटना था आज घृणा बांटने लगे, और वह भी धर्म के नाम से।
आज मानव कहला कर भी अमानवीय कार्य करने लगे,
अज्ञानता का काम कर भी यही मानव अपने को
ज्ञानवान मानने और कहलाने लगे, फिर भी यह मानव परमात्मा से फरियाद कर रहे हैं
असतो मा सदगमय तमसो मा जोतिर्गमय = हमें असत्य से सत्य की ओर ले चल, अन्धकार से प्रकाश की
और ले चल। जब कि यह कहने की बात नहीं है,
यह करने की बात है।
हमें अपने आप ही चलना पड़ेगा कोई हमें हाथ पकड़ कर चलाएंगे नहीं
।
यही है कि ऋषियों ने हमें
उपदेश दिया है, वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद का पढ़ना पढ़ाना और
सुनना सुनना सब श्रेष्ठ जनों का परम धर्म है।
परमात्मा ने बिना रोक-टोक के सम्पूर्ण मानव कहलाने वालों को अपना ज्ञान
दिया, इसी कारण हमारे ऋषि और मुनियों ने हम सब को वेदों की ओर लौटने का
उपदेश दिया । परन्तु दुर्भाग्य से हमारे लोगों ने अपने को गुरु कहलाकर भी वेदों को
जानने समझने का प्रयास नहीं किया और वेद विरुद्ध ही प्रचार प्रारम्भ कर
दिया । परिणाम यह
हुआ कि जो ज्ञान परमात्मा का दिया मानव मात्र के लिए था उसी ज्ञान विरुद्ध प्रचार से लोग वेद को अपनाने के बजाय वेदों से अपना
नाता ही तोड़ लिया किसीने और किसीने वेद को ही मात्र ब्राह्मणों का भारतियों
का पंडितों का ग्रन्थ बताकर वेद से अपने को किनारे कर लिया।
किसी ने स्त्री शुद्रो नाधियताम कह कर महिलाओं को और शूद्रों को वेद
से दूर हटा दिया, जबकि वेद में उपदेश आया पञ्च जना मम होत्रम जुषुध्यं= ये वेद
विश्व के जनों के लिए है इस उपदेश को भी लोगो ने बिना जाने
बिना ध्यान दिए अपनी मनमानी बातों को वेद के साथ जोड़ने का प्रयास किया नारी को नरक
का द्वार कह कर मात्री शक्ति को अपमानित किया यह सब होने के बावजूद भी
हमारे देश के लोगों ने उन्हें आदि गुरु कह कर पुकारा सत्य को तिलांजली देने
वालों को आदि गुरु कह दिया, उनसे किसी ने यह नहीं पुछा की आपने जिस माँ के कोख से जन्म लिया उन्हें आपने नरक का द्वार क्यों और कैसे कहा ? गुरु से यह पूछने की हिम्मत किसी ने नहीं जुटाई और गुरु के इन वेद विरुद्ध बातों को
सत्य मान कर उनके अनुयायी कहलाये अथवा उनके पिछ लग्गू बन गए यहाँ सत्य पर
कुठाराघात करने वाले अपने ही लोग ठहरे।
हम उन विदेशियों पर
दोष क्या और कैसे लगायेंगे की जिन्होंने
वेद को गड़रियों का गीत कहा अर्थात
चरवाहों के गीत (पशु चराने वालों के
गीत) आदि । वह तो विदेशी थे उन्हें तो
वेद विरुद्ध प्रचार करना ही था और हमारे
उन विद्वानों को क्या कहा जाये
जिन्होंने महिलाओ को ,शूद्रों को वेद से
वंचित रहने का उपदेश दिया अथवा वेद
से दूर रहने को कहा छूने तक को मना किया
और पढने पर जुबान काट लेने को कह
दिया और सुनने पर भी शीशा पिघाल कर
महिलाओं के और शूद्रों के कान में डालने
तक की बात कर दी।
आज तक हमारे देश के लोगों ने इन असत्य प्रचार का विरोध नहीं किया और ऐसे वेदविरुद्ध वाक्य कहने
वालों को अपना गुरु मान कर सिर आँखों पर बिठाते हुए आदि गुरु कहने में
संकोच तक नहीं किया । इस विज्ञान के युग में भी सत्य को स्वीकारना नहीं चाहते, जबकि वैदिक परंपरा में सत्य की चर्चा सब जगह की गयी है यानि
परमात्मा को पाने के लिए सत्य आचरण की आवश्यकता है,
धर्म को जानने के लिए भी सत्य को स्वीकार
करना आवश्यक है, सत्य के साथ मानव का जीवन जुडा हुआ है कारण सत्य के आचरण पर ही ये मानव मानव कहला सकता है।
मानव जब सत्य को छोड़ देता है और असत्य को अपनाता है फिर ये मानव मानव कहलाने के अधिकारी नहीं रहता शास्त्र में जिसे दानव कहा जाता है,आज सम्पूर्ण विश्वमें उन्ही दानवों का उप्द्रोव हो रहा है अथवा चल रहा है । इस पर दोष मैं अपने लोगों पर ही लगाना चाहूँगा की जिनपर अथवा जिन लोगों पर यह जिम्मेदारी थी वेद प्रचार के माध्यम से मानवों को मानव बनने का उपदेश देना था वही वेद से अलग हो गये वेद विरुद्ध प्रचार किया जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं कारण हमारे लोगों ने सत्य को छोड़ असत्य के पक्षधर बने परिणाम आज सामने है । आज 35 वर्षों से मैं अपना समय इसी वेद प्रचार में लगाया हूँ, परमात्मा की दया और कृपा है की मैंने वेद को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया आप सभी से विनती करता हूँ आपलोग भी वेद को जानने और समझने का प्रयास करें तदानुसार अपना जीवन बनाएं।
मानव जब सत्य को छोड़ देता है और असत्य को अपनाता है फिर ये मानव मानव कहलाने के अधिकारी नहीं रहता शास्त्र में जिसे दानव कहा जाता है,आज सम्पूर्ण विश्वमें उन्ही दानवों का उप्द्रोव हो रहा है अथवा चल रहा है । इस पर दोष मैं अपने लोगों पर ही लगाना चाहूँगा की जिनपर अथवा जिन लोगों पर यह जिम्मेदारी थी वेद प्रचार के माध्यम से मानवों को मानव बनने का उपदेश देना था वही वेद से अलग हो गये वेद विरुद्ध प्रचार किया जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं कारण हमारे लोगों ने सत्य को छोड़ असत्य के पक्षधर बने परिणाम आज सामने है । आज 35 वर्षों से मैं अपना समय इसी वेद प्रचार में लगाया हूँ, परमात्मा की दया और कृपा है की मैंने वेद को अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया आप सभी से विनती करता हूँ आपलोग भी वेद को जानने और समझने का प्रयास करें तदानुसार अपना जीवन बनाएं।
साभार: महेन्द्रपाल आर्य
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