विकास के पीछे दौड़ते बड़े-बड़े राष्ट्रनायकों के मन मस्तिष्क में क्या कभी
संजीदगी से यह विचार भी आएगा कि आखिर सुरसा के मुंह के जैसे बढ़ती हुई
जनसंख्या को कहां विराम मिलेगा। बढ़ती जनसंख्या ने जंगल समाप्त कर दिए,
जमीनों के भाव आसमान पर पहुंच गए, यह तो हम सब को पता है किंतु बढ़ती
जनसंख्या के लिए घटती ऑक्सीजन, पेयजल की किल्लत, ट्रेफिक जाम में फंसकर
होने वाली मरीजों की मौत, जनसंख्या असन्तुलन के कारण बढ़ता सामाजिक
विद्वेष, आहार की कमी, खाद्य पदार्थो में जानलेवा मिलावट, उत्पादन बढ़ाने
के लिए कैंसर को निमन्त्रित करने वाले रासायनिक उर्वरक जैसे तमाम विषयों पर
आखिर कब मंथन होगा।
जनसंख्या वृद्धि एक विराट विषय है और इसके समाधान के लिए कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। समस्या तो वर्षों से है किन्तु कमजोर राजनैतिक नेतृत्व ने इसे और गंभीर बना दिया है। विचार कीजिए आजादी के समय हमारी आबादी में कितने प्रतिशत हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी थे। आज जनसंख्या में इनकी कितनी भागीदारी है। समस्या का समाधान धर्म और आस्था के परे जाकर सोचना होगा। आस्था के नाम पर क्या किसी भी समाज को जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि करने की छूट दी जा सकती है।
विषय समग्र है इसलिए समाधान भी समग्र ही ढूंढना होगा। संस्कृतियों के अस्तित्व पर मडंरा रहा खतरा इसका एक घटक हो सकता है। किन्तु समस्या का दूसरा घटक यह भी है कि जब पेयजल, ऑक्सीजन, जैसी मूलभूत चीजे ही नहीं मिलेगी तो फिर आस्था के आचार से काम नहीं चलने वाला। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश में पिछले 150 वर्षो के दौरान जितने परिवर्तन हुए हैं उनका बड़ा कारण वहां की जनसंख्या में एकतरफा वृद्धि है।
यदि इसी गति से वहां जनसंख्या वृद्धि होती रही तो 100 वर्ष बाद की स्थिति की कल्पना सिहरन पैदा करती है। जंगलों में मनुष्य पहुंच गया और आचरण से भी जंगली होने लग गया इस पर कोई भी विचार नहीं करता किन्तु जंगली जानवर आबादी क्षेत्र में आने लगे हैं तो बड़ा बवाल होने लगा है। चीन से कुछ सबक लेना चाहिए, भविष्य को ध्यान में रखकर नीति बनानी चाहिए। जागो... देर तो हो गई अंधेर न हो जाए।
#वैदिक_भारत
साभार : भाई श्री विवेकानंद जी द्वारा लिखित
जनसंख्या वृद्धि एक विराट विषय है और इसके समाधान के लिए कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। समस्या तो वर्षों से है किन्तु कमजोर राजनैतिक नेतृत्व ने इसे और गंभीर बना दिया है। विचार कीजिए आजादी के समय हमारी आबादी में कितने प्रतिशत हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी थे। आज जनसंख्या में इनकी कितनी भागीदारी है। समस्या का समाधान धर्म और आस्था के परे जाकर सोचना होगा। आस्था के नाम पर क्या किसी भी समाज को जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि करने की छूट दी जा सकती है।
विषय समग्र है इसलिए समाधान भी समग्र ही ढूंढना होगा। संस्कृतियों के अस्तित्व पर मडंरा रहा खतरा इसका एक घटक हो सकता है। किन्तु समस्या का दूसरा घटक यह भी है कि जब पेयजल, ऑक्सीजन, जैसी मूलभूत चीजे ही नहीं मिलेगी तो फिर आस्था के आचार से काम नहीं चलने वाला। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश में पिछले 150 वर्षो के दौरान जितने परिवर्तन हुए हैं उनका बड़ा कारण वहां की जनसंख्या में एकतरफा वृद्धि है।
यदि इसी गति से वहां जनसंख्या वृद्धि होती रही तो 100 वर्ष बाद की स्थिति की कल्पना सिहरन पैदा करती है। जंगलों में मनुष्य पहुंच गया और आचरण से भी जंगली होने लग गया इस पर कोई भी विचार नहीं करता किन्तु जंगली जानवर आबादी क्षेत्र में आने लगे हैं तो बड़ा बवाल होने लगा है। चीन से कुछ सबक लेना चाहिए, भविष्य को ध्यान में रखकर नीति बनानी चाहिए। जागो... देर तो हो गई अंधेर न हो जाए।
#वैदिक_भारत
साभार : भाई श्री विवेकानंद जी द्वारा लिखित
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