किसी भी मन्दिर,धार्मिक स्थान अथवा हमारे घर में जब भी कोई शुभ कार्य होता है तो कुछ वैदिक मन्त्रों का जप अवश्य ही किया जाता है । शास्त्रों के अनुसार सभी देवी-देवताओं के भिन्न भिन्न प्रकार के बीज मन्त्र अलग-अलग अवसरों के अनुसार होते है, किन्तु जब भी कोई शुभ कार्य, पूजा, आराधना अथवा आरती पूर्ण होती है तो 'कर्पूरगौरं करुणावतारं' मन्त्र को विशेष रुप से बोला जाता है। अब हमारे मन में ये प्रश्न उठना भी उचित है की ऐसा क्यों? तो आइये जाने इसका उत्तर।
कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥
यह मन्त्र भगवान् शिव का मन्त्र है, अर्थात भगवान् शिव की आराधना करने के अवसर पर इस मन्त्र का ही उच्चारण किया जाता है।
'कर्पूरगौरं करुणावतारं' मन्त्र का अर्थ :
कर्पूरगौरं = कर्पूर के समान गौर वर्ण वाले
करुणावतारं = जो करुणा के साक्षात् अवतार हैं ।
संसारसारं = समस्त सृष्टि के जो सार हैं ।
भुजगेंद्रहारम् = जो सांपों को हार के रुप में धारण करते हैं ।
सदा वसतं = जिनका वास सदा होता है
हृदयारविन्दे = ह्रदय में
भवंभावनी = आप (शिव) भवानी (माँ पार्वती )
सहितं नमामि = साथ में नमन है
'कर्पूरगौरं करुणावतारं' मन्त्र का भावार्थ
जो कर्पूर जैसे गौर वर्ण वाले हैं, करुणा के साक्षात् अवतार हैं, संसार के सार हैं और भुजंगों का हार धारण करते हैं, वे भगवान शिव-माता भवानी सहित मेरे हृदय में सदैव निवास करें और उन्हें मेरा प्रणाम् है ।
हर पूजा कार्य में इसी मन्त्र का जाप क्यों ?
किसी भी देवी-देवता की आरती, पूजा अथवा अन्य शुभ दैवीय कार्यों के बाद "कर्पूरगौरम् करुणावतारं" मन्त्र का ही जाप क्यों किया जाता है ? इसके पीछे बहुत गहरा रहस्य छिपा हुआ हैं । वेदों में वर्णित घटनाओं के अनुसार भगवान शिव की सर्वप्रिय यह स्तुति मन्त्र शिव-पार्वती विवाह के समय स्वयं श्रीहरि विष्णु भगवान द्वारा गायी हुई मानी गई है । यद्यपि यह माना जाता है कि भगवान शिव शंकर श्मसान के वासी हैं तथा उनका स्वरुप बहुत भयंकर और अघोरी है । किन्तु यह स्तुति मन्त्र वर्णन करता है कि उनका एक स्वरुप बहुत ही दिव्य है । शिव को सृष्टि का कल्याण कारक एवं संहारक भी माना गया है । वे मृत्युलोक के अधिपति देवता हैं । उन्हें पशुपतिनाथ भी कहा जाता है । यहाँ पशुपति का अर्थ है - संसार के जितने भी जीवित जीव हैं उन सबका स्वामी।
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