भारतीय स्वाधीनता संग्राम में श्री अरविन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यद्यपि उनका बचपन घोर विदेशी और विधर्मी वातावरण में बीता; परन्तु पूर्वजन्म के संस्कारों के बल पर वे महान आध्यात्मिक पुरुष कहलाये।
उनका जन्म १५ अगस्त, १८७२ को डा.कृष्णधन घोष के घर में हुआ था। उन दिनों बंगाल का बुद्धिजीवी और सम्पन्न वर्ग ईसाइयत से अत्यधिक प्रभावित था। वे मानते थे कि हिन्दू धर्म पिछड़ेपन का प्रतीक है। भारतीय परम्पराएँ अन्धविश्वासी और कूपमण्डूक बनाती हैं। जबकि ईसाई धर्म विज्ञान पर आधारित है। अंग्रेजी भाषा और राज्य को ऐसे लोग वरदान मानते थे।
डा. कृष्णधन घोष भी इन्हीं विचारों के समर्थक थे। वे चाहते थे कि उनके बच्चों पर भारत और भारतीयता का जरा भी प्रभाव न पड़े। वे अंग्रेजी में सोचें, बोलें और लिखें। इसलिए उन्होंने अरविन्द को मात्र सात वर्ष की आयु में इंग्लैण्ड भेज दिया। अरविन्द असाधारण प्रतिभा के धनी थे।उन्होंने अपने अध्ययन काल में अंग्रेजों के मस्तिष्क का भी आन्तरिक अध्ययन किया। अंग्रेजों के मन में भारतीयों के प्रति भरी द्वेष भावना देखकर उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने तब ही संकल्प लिया कि मैं अपना जीवन अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त करने में लगाऊँगा।
अरविन्द घोष ने क्वीन्स कालिज, कैम्ब्रिज से १८९३ में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। इस समय तक वे अंग्रेजी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच आदि १० भाषाओं के विद्वान् हो गये थे। इससे पूर्व १८९० में उन्होंने सर्वाधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। अब उनके लिए पद और प्रतिष्ठा के स्वर्णिम द्वार खुले थे; पर अंग्रेजों की नौकरी करने की इच्छा न होने से उन्होंने घुड़सवारी की परीक्षा नहीं दी। यह जान कर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें ‘स्वदेश की आत्मा’ की संज्ञा दी। इसके बाद वे भारत आ गये।
भारत में १८९३ से १९०६ तक उन्होंने बड़ोदरा (गुजरात) में रहते हुए राजस्व विभाग, सचिवालय और फिर महाविद्यालय में प्राध्यापक और उपप्राचार्य जैसे स्थानों पर काम किया। यहाँ उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, बंगला, गुजराती, मराठी भाषाओं के साथ हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का गहरा अध्ययन किया; पर उनके मन में तो क्रान्तिकारी मार्ग से देश को स्वतन्त्र कराने की प्रबल इच्छा काम कर रही थी। अतः वे इसके लिए युवकों को तैयार करने लगे।
अपने विचार युवकों तक पहुँचाने के लिए वे पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखने लगेे। वन्दे मातरम्, युगान्तर, इन्दु प्रकाश आदि पत्रों में प्रकाशित उनके लेखों ने युवाओं के मन में हलचल मचा दी। इनमें मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पण की बात कही जाती थी। इन क्रान्तिकारी विचारों से डर कर शासन ने उन्हें अलीपुर बम काण्ड में फँसाकर एक वर्ष का सश्रम कारावास दिया।
कारावास में उन्हें स्वामी विवेकानन्द की वाणी सुनायी दी और भगवान् श्रीकृष्ण से साक्षात्कार हुआ। अब उन्होंने अपने कार्य की दिशा बदल ली और ४ अप्रैल, १९१० को पाण्डिचेरी आ गये। यहाँ वे योग साधना, अध्यात्म चिन्तन और लेखन में डूब गये। १९२४ में उनकी आध्यात्मिक उत्तराधिकारी श्री माँ का वहाँ आगमन हुआ। २४ नवम्बर, १९२६ को उन्हें विशेष सिद्धि की प्राप्ति हुई। इससे उनके शरीर का रंग सुनहरा हो गया।
श्री अरविन्द ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। अध्यात्म साधना में डूबे रहते हुए ही ५ दिसम्बर, १९५० को वे अनन्त प्रकाश में लीन हो गये।
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