सरदार अजीत सिंह भारत के एक गुमनाम राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। वे भगत सिंह के चाचा थे। उन्होने भारत में ब्रिटिश शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। उन्हें राजनीतिक 'विद्रोही' घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता। १९०६ ई. में लाला लाजपत राय जी के साथ ही साथ उन्हें भी देश निकाले का दण्ड दिया गया था।
इनके बारे में कभी बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं । जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल २५ वर्ष थी। १९०९ में सरदार अजीत सिंह अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के उद्देश्य को पूर्ण करने हेतु विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी आयु मात्र २७ वर्ष की थी। इरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर आजाद हिन्द फौज की स्थापना की।
नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी से मिलाया। मुसोलिनी भी उनके व्यक्तित्व के प्रशंसक थे। इन दिनों में उन्होंने ४० भाषाओं पर महारत प्राप्त कर ली थी। रोम रेडियो को तो उन्होंने नया नाम दे दिया था, 'आजाद हिन्द रेडियो' तथा इसके माध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। मार्च १९४७ में वे भारत वापस लौटे। भारत लौटने पर पत्नी ने पहचान के लिए कई सवाल पूछे, जिनका सही जवाब मिलने के बाद भी उनकी पत्नी को विश्वास नही हुआ। इतनी भाषाओं के ज्ञानी हो चुके थे सरदार अजित सिंह ,कि उन्हें पहचानना बहुत ही मुश्किल था। ४० वर्ष तक एकाकी और तपस्वी जीवन बिताने वाली उनकी पत्नी हरनाम कौर भी वैसे ही जीवंत व्यक्तित्व वाली महिला थीं।
जिस दिन भारत आजाद हुआ उसी दिन सरदार अजीत सिंह की आत्मा भी शरीर से मुक्त हो गई। भारत के विभाजन से वे इतने व्यथित थे कि १५ अगस्त, १९४७ के सुबह ४ बजे उन्होंने अपने पूरे परिवार को जगाया, और जय हिन्द कह कर दुनिया से विदा ले ली। अजीत सिंह की समाधि हिमाचल प्रदेश में चंबा ज़िले के
प्रसिद्ध पर्यटन स्थल डलहौजी का विशेष आकर्षण का केंद्र है।
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