बाईबल के पुराने नियम के "बुक ऑफ़ एस्तेर" के पहले अध्याय में क्षयर्ष नाम के एक राजा का वर्णन आता है जिसके बारे में कहा गया है कि वह 127 प्रान्तों का अधिपति था और उसके राज्य की सीमा हिन्दुस्तान से लगती थी। "बुक ऑफ़ एस्तेर" की रचना ईसा पूर्व 475 साल मानी जाती है। "बुक ऑफ़ एस्तेर" के लेखक राजा क्षयर्ष के राज्य-विस्तार की बात करते हुए जब ये कह कहा था कि उसके राज्य की सीमा हिन्दुस्तान से लगती थी तो क्या वो पूरे भारत को एक राजनीतिक इकाई के रूप में नहीं देख रहा था? अगर नहीं देख रहा होता तो वो राजा क्षयर्ष के राज्य की सीमा भारत के किसी जनपद/ प्रदेश से मिलता हुआ बताता न कि पूरे हिन्दुस्तान से हजरत मुहम्मद साहब की हदीसें भारत को एक राजनैतिक इकाई मान कर ही कही गयी, कर्बला के मैदान में हजरत हुसैन जब यजीद के सिपहसालार से ये कह रहे रहे थे कि मुझे अपने सरहदों से दूर हिन्दुस्तान जाने दो तब वो भारत को एक राजनैतिक इकाई के रूप में ही देख रहे थे।
यहाँ जितने भी आक्रमणकारी आये यहाँ तक की अंग्रेज भी सबके बारे में निर्विवाद रूप से यही लिखा गया कि उन्होंने "भारत" पर हमला किया। हम कहतें हैं अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया (जबकि सत्य ये है कि भारत कभी भी पूरी तौर पर अंग्रेजों के अधीन नहीं रहा), बिन कासिम सिर्फ सिंध पर हमलावर हुआ था पर उसे गजवा-ए-हिन्द का सिपाही माना जाता है।
यानि भारत एक राष्ट्र के साथ-साथ राजनैतिक रूप से भी एक रहा है, हम भले इस बात को न माने पर दुनिया मानती थी। भारत को जब दुनिया देखती थे तो एक राजनैतिक इकाई के रूप में भी देखती थी। भारत में राम के समय से कृष्ण तक कई राज्य, रजवाड़े, जनपद रहे थे पर विधान सबके लिये एक ही थे जिसे हमारे ग्रन्थ और हमारे ऋषिगण संचालित करते थे। सबके सब अलग राज्य होते हुए भी एकात्म थे। सबके मन में भावना यही थी कि भारत हमारे लिये पुण्य-भूमि है जिसके रक्षण का दायित्व हम सब पर है। भारत का तीर्थ हरेक के लिये खुला था, किसी के किसी राज्य में जाने पर प्रतिबन्ध नहीं था, वीजा जैसी कोई चीज़ नहीं लेनी पड़ती थी।
हाँ, ये बात सत्य है कि हमारी नज़र में राज्य की तुलना में राष्ट्र कहीं अधिक वृहत्तर महत्त्व का था, हमारे पूर्वजों ने जो पद्धति विकसित की थे इसके अनुरूप उसकी सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि कितनी ही शताब्दियों तक इस विस्तृत भूभाग पर शासन की कोई एक केन्द्रीय ईकाई नहीं थी, सार्वभौमत्व नहीं थे पर तब भी हमारा राष्ट्र जीवित था, समृद्ध था, संपन्न था।
"एक राष्ट्र एक राज्य के अधीन होना चाहिए" ये तो नवीन दर्शन है जो बहुत बाद में आया, इसलिये इस सोच को हमारे साथ मिलाकर देखना ही मूर्खतापूर्ण है। हालांकि, कई उदाहरणों से ये साबित हुआ कि ये अवधारणा भी ठीक नहीं है कि एक राष्ट्र एक राज्य के अधीन हो क्योंकि तथ्य इसकी पुष्टि नहीं करते। उदाहरण के लिए यूरोप के कई देश एक राज्य तो हैं पर उसके अंदर कई राष्ट्रीयता पाली जा रही है। एकीकरण से पूर्व एक राष्ट्र होते हुए जर्मनी दो राज्य थे। कोरिया के साथ भी यही बात है, रूस ने जबरन कोशिश की पर बिखर गया।
एकात्मता राज्य के कारण निर्मित हो तो क्षणिक होती है और जब एकात्मता राष्ट्र के कारण निर्मित हो तो स्थाई होती है। भारत के संदर्भ में ये एकात्मता राष्ट्र के आधार पर निर्मित हुई थी इसलिये अलग-अलग जनपदों के होने के बाबजूद परधर्मी आक्रमणों से पहले यहाँ कभी अलगाव के स्वर नहीं उठे।
जो सारा भ्रम है वो इसलिये है क्योंकि भारत के संदर्भ में आप राष्ट्र और राज्य को एक करके देखतें हैं जबकि दोनों में बहुत अंतर है। राष्ट्रवाद अगर इसका शरीर है तो राज्य केवल उसका वस्त्र मात्र।
भारत राष्ट्र के रूप में एक था इसलिये राजनैतिक रूप से भी एक ही था दिक्कत तब आई जब जबरन राज्य के नियम लागू करने के प्रयास किये गये, भारत के शाश्वत स्वरुप के साथ छेड़-छाड़ की गई। वेदों में राष्ट्र शब्द अगर बहुतायत में मिलतें हैं और देश शब्द का प्रयोग यदा-कदा ही है तो इसका कारण यही है हम ये मानतें हैं कि शासन सत्ता को सर्वोपरि करके नहीं चलते बल्कि इसमें धर्म सत्ता और समाज सत्ता सहभागी होती है। हमने राजसत्ता को हमेशा धर्मसत्ता और समाजसत्ता के नीचे रखा। जब निरंकुश और अधर्मी होने के कारण प्रजा वेन मारे गये थे तब ऋषियों ने यानि तब के समाज ने पृथु के रूप में अपने राजा का चयन किया था और चयन करने के बाद उसके राज्यभिषेक से पूर्व उससे पूछा था कि धर्म-व्यवस्था के संबंध में तुम क्या जानते हो? पृथु ने कहा, मैंने धर्मशास्त्र तो पढ़ें हैं फिर भी आप बताइए कि आप पूछना क्या चाहतें हैं? तब ऋषियों ने उससे कई तरह के वचन लिए और उसके पालन का संकल्प करवाने के बाद ही उसे गद्दी पर सुशोभित किया। पृथु के लिये समाज से योग्य मंत्रियों का चयन भी ऋषियों ने ही किया।
उस समय जनपद बहुत थे पर सबको संचालित करने वाली सत्ता एक ही थी जो धर्मसत्ता थी। भारत जब तक राष्ट्र के स्वरुप में जीता था रहा वैभवशाली रहा, उन्नतिशील रहा, अलगाव और विद्वेषवादी शक्तियों से अलग रहा पर जब इसे जबर्दस्ती राज्य के खांचे में फिट करने और राज्य के नियमों से संचालित करने की कोशिश की गई, एक साथ कई संकट हमारे सामने आकर खड़े हो गये। भारत का कई-कई बार विभाजन, भाषा-बोली और प्रांतीयता के झगड़े, पहाड़ी और मैदानी का संघर्ष, अलगाववादी और विभाजनकारी प्रवृतियों का उदय इसके नतीजे में जन्में।
चीजों को सही परिपेक्ष्य में देखने जायेंगें तो हमारी चिन्तन में आई इस विकृति को भी देखना होगा फिर ये भी समझ में आयेगा कि सांस्कृतिक ऐक्य के इतने लंबे इतिहास के बावजूद एक "हिंदू राष्ट्र" सॉरी "संविधान में उल्लेख कर बनाया गया हिन्दू राज्य" की स्थापना क्यों नहीं की जा सकती ??
साभार : राष्ट्रवादी भाई श्री अभिजीत जी
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