Wednesday, August 9, 2017

हमारे महापुरुष : अनुपम राष्ट्रवादी और दानवीरों के पर्याय श्री भामाशाह की गाथा

 


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 यत्र तत्र जब भी दान की चर्चा होती है तो एक ही नाम से सम्बोधन होता है और वह नाम है "भामाशाह" का। दान की कल्पना मात्र मन में आते ही "भामाशाह" का नाम बरबस ही जिव्हा पर आ जाता है। राष्ट्र और मातृभूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले महा दानवीर अनुपम दानी श्री भामाशाह का जन्म वीर प्रसूता राजस्थान के अलवर में २८ जून, १५४७ ईस्वी  को हुआ था। वे पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी की संतान थे । श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने पिता की ही तरह श्री भामाशाह भी मेवाड़ के शासक राणा परिवार के लिए समर्पित थे।
मेवाड़ की शौर्यपूर्ण महागाथा किसी से छुपी हुई नहीं है किन्तु एक समय ऐसा भी आया जब रणभूमि में  अकबर से लोहा लेते हुए राणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग भी करना पड़ा। वे अपने परिवार और शुभ चिंतकों सहित जंगलों में रहने को विवश हो गए थे। महलों में रहने और सोने चाँदी के बरतनों में स्वादिष्ट पकवान खाने वाले राजसी वैभव के धनी महाराणा प्रताप को और उनके परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़े थे। महाराणा प्रताप सिंह जी को बस एक ही चिन्ता थी कि कैसे पुनः सेना का गठन करें ,जिससे कि अपनी मातृभूमि को मुगल आक्रांताओं के चंगुल से छुड़ा सकें।

यह सब बिना धन के करना कौरी कल्पना मात्र ही थी तथा राणा जी के समक्ष सबसे विकट समस्या धन बल की थी। उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक और शुभ चिंतक थे, उन्हें भी जीवन यापन करने हेतु धन की सख्त आवश्यकता होने लगी थी। कुछ लोगों ने राणा को सलाह दी की वे अकबर के समक्ष संधि का प्रस्ताव दें, किन्तु राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह कदापि स्वीकार नहीं था। भामाशाह को जब राणा प्रताप के इस कष्ट पूर्ण जीवन की भनक लगी तो उनका ह्रदय भर आया। उनके पास स्वयं का तथा पूर्वजों द्वारा अर्जित हुआ अपार धन संपत्ति थी  । उन्होंने यह सब महाराणा प्रताप के चरणों में समर्पित कर दिया। जाने माने इतिहासकारों के अनुमान के अनुसार उस समय भामाशाह ने २५ लाख रु. तथा २०,००० स्वर्ण मुद्राएं राणा जी को दीं थी। मातृभूमि के प्रति भामाशाह  का यह समर्पण देखकर राणा जी ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया।
राणा जी की रानी, महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है। यह सब धन मैंने देश से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया।
उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह भड़क गया। वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे; पर इस धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी। अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को कहा। अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा नहीं देता। इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले और राणा प्रताप को छोड़ दे; पर दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली। यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया।
भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया। भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे। महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है।


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