देश के नाम भगत सिंह ने लिखा था ये आखिरी खत
नई
दिल्ली। शहीद-ए-आजम भगत सिंह को जिस दिन फांसी दी जानी थी उस रोज भी वो
मुस्कुरा रहे थे। उनके चेहरे पर शिकन पर कोई निशान नहीं था। लेकिन लाहौर की
उस जेल में हर कैदी की आंखें नम थीं। एक दूसरे की बांहों में बांहें डालकर
वो तीन दीवाने फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ रहे थे।
जेल
के कायदे-कानून के मुताबिक भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी से पहले
स्नान कराया गया। तीनों को नए कपड़े दिए गए और जल्लाद के सामने पेश होने से
पहले उनका वजन नापा गया, जो देश की खातिर कुर्बान होने की खुशी में पहले से
ज्यादा निकला।
जेल की
खामोशी अब चीखों में बदलने लगी थी। सलाखों से हाथ लहराकर कैदी इंकलाब
जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। और हंसते-मुस्कराते भगत सिंह भी अब आवाज से
आवाज मिला रहे थे।
भगत
सिंह बीच में थे। इस बीच जेल वॉर्डन छतर सिंह ने भगत सिंह से वाहे-गुरु की
प्रार्थना की गुजारिश की। लेकिन भगत सिंह का जवाब सुनकर नॉर्डन भी हैरान रह
गया। फांसी के तख्ते से चंद कदमे पहले भगत सिंह का सामना कुछ अंग्रेज
अधिकारियों से भी हुआ। लेकिन यहां भी भगत सिंह का वही अंदाज कायम रहा।
फांसी
की कार्रवाई शुरू होने से पहले भगत सिंह ने अपनी ऊंची आवाज में देश को एक
छोटा सा संदेश भी दिया। भगत सिंह ने कहा कि आप नारा लगाते हैं, इंकलाब
जिंदाबाद, मैं ये मानकर चल रहा हूं कि आप वास्तव में ऐसा ही चाहते हैं। अब
आप सिर्फ अपने बारे में सोचना बंद करें, व्यक्तिगत आराम के सपने को छोड़
दें, हमें इंच-इंच आगे बढ़ना होगा। इसके लिए साहस, दृढ़ता और मजबूत संकल्प
चाहिए। कोई भी मुश्किल आपको रास्ते से डिगाए नहीं। किसी विश्वासघात से दिल न
टूटे। पीड़ा और बलिदान से गुजरकर आपको विजय प्राप्त होगी। ये व्यक्तिगत जीत
क्रांति की बहुमूल्य संपदा बनेंगी।
फांसी
के उस पुराने मचान पर जाने से पहले एक बार फिर तीनों से उनकी आखिरी
ख्वाहिश पूछी गई। तीनों ने एक साथ जवाब दिया, हम एक दूसरे से गले मिलना
चाहते हैं। फांसी के फंदे के सामने ही वो तीनों ऐसे गले मिले जैसे एक नए
सफर की शुरुआत होने वाली हो। लड़खड़ाते हाथों से जल्लाद ने भगत सिंह, सुखदेव
और राजगुरु के चेहरे पर नकाब ढके और फिर तीनों को फांसी दे दी गई।
फांसी
के बाद जेल वॉर्डन बैरक की तरफ भागा और फूट-फूटकर रोने लगा। वो कह रहा था
कि 30 बरस के सफर में उसने कई फांसियां देखी हैं। लेकिन फांसी के फंदे को
इतनी बहादुरी और ऐसी मुस्कराहट के साथ कबूल करते उसने पहली बार देखा था।
सच
तो ये है कि भगत सिंह 23 मार्च 1931 की उस शाम के लिए लंबे अरसे से बेसब्र
थे। एक दिन पहले यानी 22 मार्च 1931 को अपने आखिरी पत्र में भगत सिंह ने
इस बात का ज़िक्र भी किया था। भगत सिंह ने खत में लिखा, ‘साथियों स्वाभाविक
है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं,
लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैंद होकर या पाबंद होकर न
रहूं। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी
दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने
की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था। मेरे हंसते-हंसते फांसी पर
चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह की उम्मीद करेंगी।
इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति
को रोकना नामुमकिन हो जाएगा। आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी
बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए’।
भगत
सिंह सच कहते थे। 1931 से 1947 के बीच आजादी के 125 से भी ज्यादा दीवाने
फांसी के फंदे पर झूल गए और उन नौजवानों के लिए भरत सिंह की कुर्बानी एक
मिसाल बनकर सामने आई। साल बीत गए, लेकिन कुर्बानी की वो कहानी आज भी इस
मुल्क की हिम्मत है, सलाम है शहीद-ए-आजम भगत सिंह को, जिन्होंने सबकुछ
लुटाकर, हिन्दुस्तान को सबकुछ दिला दिया
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